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Thursday, February 6, 2014

Editor Voice Vol 01 Issue 03 (2013)

Creative Space : International Journal
(Bi-monthly - Peer Reviewed Journal)
Multi Lingual and Multi Disciplinary
Issn 2347-1689
Vol 01 Issue 03 (2013)

Editor Voice

Chief Editor

यदि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति महान होती, तो इस देश में कोई गरीब या अमीर नहीं होता | कोई उच्च-नीच न होता, अराजकता न होती, लिंग-भेद न होता, शिक्षा के क्षेत्र में हम दूसरे देशों से आगे होते, मगर ऐसा नहीं है | अगर हम यह कहेंगे कि हा, तो यकीनन हम अंधे है या फिर पागल | कहने का अर्थ यह है कि हम अपने भूतकाल से अभी बाहर निकले नहीं है और साथ ही भूतकाल को सही रूप से जानने की कोशिश नहीं की हैं | भारत देश में विभिन्नता है और यह वैविध्य भारत की विशेषता तब बनेगी जब विविधता एकता में परीणित होगी | अलग-अलग भारतीय भूमि में बसे लोग अपनी ही विशेषता और विशेष अधिकारों को बसाए हुए है | संस्कृति को हम जानते ही नहीं है, संस्कृति तो कभी हमें यह नहीं सिखाती हैं कि जो धरती पर पैदा हुआ है, वह तुमसे उच्च या नीच है ! अगर संस्कृति ऐसा कहती है, तो फिर संस्कृति को बदलना होगा | जो संस्कृति एक मनुष्य को उच्च और एक को नीच स्थापित करे उसे संस्कृति नहीं कह  सकते हैं  |

भारत देश में शिक्षा को जिस जिम्मेदारी से अपनाया जाना चाहिए, उस जिम्मेदारी से स्वीकार्य नहीं गया है | यहाँ पर तीन भेद है सरकारी, अनुदानित एवं निजी | हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या पढ़ा रहे है ? हम हमारी संस्कृति और सभ्यता की महानता की बाते तो बड़ाई से करते है | मगर हमारी मातृभाषा एवं हमारी जन भाषा को छोड़ रहे है | फेक्ट्रियों में जैसे यंत्र पैदा होते है हमारी भावी पीढ़ी भी उसी तरह तैयार हो रही है और उससे देश कई अपेक्षाएँ रखता है | क्या वह देश का अच्छा नागरिक बन पायेगा ?

उच्च शिक्षा में भी निजीकरण की धूम मची है, जिसके पास जमीं, सत्ता और पैसा है | उनके लिए शिक्षा एक सफ़ेद धंधा है | लोग भी उसी धंधें को मानने लगा है और आधुनिक समाज के साथ चलने के लिए अपने आप को ही लुटा रहा है | हमारे आचार एवं व्यवहार में जमीं आसमान का फर्क दिखाई देता है | कुछ संस्थान के पास तो जमीं भी नहीं होती और पाठशाला, कोलेज एवं विश्वविद्यालय घर में चलाते है, जिसके पास अपना  कुछ नहीं पी बिना पैसे के .... | हम महान सभ्यता के वाहक है और जब कोई उसमें से जाति के आधार पर आगे आता है, तब उसका विरोध व्यवस्थापन के लोग बड़ी सूक्ष्मता से करते ! कुछ संस्थान को जब सरकारी महकमों की मान्यता मिल जाती है, तो उनके लिए यह संस्थान फेक्ट्री के समान बन जाता है | बाते उच्च और शिक्षा परस्त | कई संस्थान जैसे कुछ निर्माण करती हो वैसे दिखाई देता है, मगर वहाँ विधार्थियों का मानसिक दोहन ही होता है |उन पर शिक्षा लादी जाती है, वह शिक्षित नहीं रट्टा मारे और आगे बढे ... आपको लगता है, यह रोबोट से भी गए गुजरे हमारा भविष्य निर्माण करेंगे | मगर करेंगे जरुर | जैसे कई पक्षी होते है कुछ सीमा तक वह पंखे पसारे उड़ते है| मगर उसमें भी कुछ पंछी पंखे पसारे ऊँची उड़ान भरते है वह आसमान से सारी धरती देखना चाहते है | दुनिया उन पर हँसती है मगर वह बिना भय के आगे बढ़ता है और वही एक दिन निर्माण करता है | वह जमीं से आसमान तक को जानता है, वह भूले-बिसरे को मार्ग दिखता है और अपना कर्तव्य निभाता रहता है | वह जमीं पर आ कर बड़ी बड़ी बाते नहीं करता, वह बड़े कार्य भी करता है | हमें उम्मीद है ऐसा होगा | वह कोई भगवान या इश्वर, अल्लाह या जीसस नहीं होगा, पैगम्बर नहीं होगा, मगर हमारे तुम्हरे जैसा ही जन्म लेने वाला और मरनेवाला होगा | वह शेर की खाल में छुपे भेडियें की असलियत को पदर्शित करेंगा |

भारत में सरकारी नौकरी अब फिक्स पगार से मिलती है | विकास के गाने गानेवाले गुजरात सरकार इस सूचि में सब से आगे है | जो शिक्षा पाकर पांच साल फिक्स पगार पता है | उस युवा से आप कैसी अपेक्षा कर सकते है ? आपको नहीं लगता की यह एक सोची-समझी गुलामी की प्रथा है | क्या इस प्रक्रिया से भ्रष्टाचार बढता है या कम होता है ? लोग युवा को शक्ति के रूप में देखते है, मगर पांच साल के फिक्स पगार में वह कौन-सी शक्ति दिखायेगा ? जब की पांच साल तक वह सरकार और जिस संस्था में काम कर रहा है |उस संस्था में गुलाम की तरह रहता है | अपने आप में खोया हुआ और भय से त्रस्त, अराजकता के इस माहौल में वह कौन-सा पौधा बोएगा ? अपने परिवार को भी वह न्याय नहीं दे सकता, तो वह राज्य एवं देश के बारे में कब सोचेगा ? वह उसके बारे में सोचे न पाए इसिलिए उसे रोकने की प्रक्रिया ही, यह फिक्स पगार यानी गुलामी प्रथा है | निजी संस्थान तो इससे भी गए गुजरे है, वहाँ पर तो उससे गुलामों की तरह काम भी लिया जाता है और पगार भी कम ही मिलती है  | उसका जन्म तो जैसे यही गुलामी करने के लिए ही हुआ है | अगर नर्क की कल्पना की जाए तो यह नर्क है और स्वर्ग की कल्पना इससे भी बुरी है | आजाद भारत और युवा भारत के लोग एवं उस में भी युवा सबसे बड़े गुलाम है | अगर हम गुलाम है तो फिर हम आजादी के पर्व क्यों मानते है? हमारी शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, सरकारी-निजी संस्थान व्यवस्था को देखते हुए हम गर्व से कह सकेगें की हम आजाद है ? हमारे लेखकों से निवेदन है की इस और अपना ध्यान केंद्रित करे और व्यवस्था परिवर्तन के लिए कलम उठायें |

इस अंक के साथ हम नए साल में प्रवेश कर गए है | हमारी टीम की तरफ से आप सब को नए साल की शुभकामनायें | हम कोशिश करते है की आपको समय पर यह अंक मिले मगर व्यस्त समय के रहते यह संभव नहीं हो पता | फिर भी आपका सहयोग हमें मिलता रहा है | आपके सुजाव भी हमें हमारे मेल पर भेजे जिससे हम आपको बेहतर से बेहतर देने की कोशिश करे | इसके साथ ही हम अगले अंक पर मिलेगे | आपके सहयोग की अपेक्षा रहेगी |


प्रधान संपादक
हरेश परमार

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