Creative Space : International Journal
(Bi-monthly - Peer Reviewed Journal)
Multi Lingual and Multi Disciplinary
Issn 2347-1689
Vol 01 Issue 03 (2013)
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यदि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति महान होती, तो इस देश में कोई गरीब या अमीर नहीं होता | कोई
उच्च-नीच न होता,
अराजकता न होती,
लिंग-भेद न होता,
शिक्षा के क्षेत्र में हम दूसरे देशों से आगे होते, मगर ऐसा
नहीं है |
अगर हम यह कहेंगे कि हा, तो यकीनन हम अंधे है या फिर पागल | कहने
का अर्थ यह है कि हम अपने भूतकाल से अभी बाहर निकले नहीं है और साथ ही भूतकाल को
सही रूप से जानने की कोशिश नहीं की हैं | भारत देश में विभिन्नता है और यह वैविध्य भारत की विशेषता
तब बनेगी जब विविधता एकता में परीणित होगी | अलग-अलग भारतीय भूमि में बसे लोग अपनी
ही विशेषता और विशेष अधिकारों को बसाए हुए है | संस्कृति को हम जानते ही
नहीं है, संस्कृति तो कभी हमें यह नहीं सिखाती हैं कि जो धरती पर पैदा हुआ है, वह तुमसे
उच्च या नीच है !
अगर संस्कृति ऐसा कहती है, तो फिर संस्कृति को बदलना होगा | जो
संस्कृति एक मनुष्य को उच्च और एक को नीच स्थापित करे उसे संस्कृति नहीं कह सकते हैं |
भारत देश में शिक्षा को जिस जिम्मेदारी से अपनाया जाना
चाहिए, उस जिम्मेदारी से स्वीकार्य नहीं गया है | यहाँ पर तीन भेद है सरकारी, अनुदानित
एवं निजी | हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या पढ़ा रहे है ?
हम हमारी संस्कृति और सभ्यता की महानता की बाते तो बड़ाई से
करते है | मगर हमारी मातृभाषा एवं हमारी जन भाषा को छोड़ रहे है | फेक्ट्रियों
में जैसे यंत्र पैदा होते है हमारी भावी पीढ़ी भी उसी तरह तैयार हो रही है और उससे
देश कई अपेक्षाएँ रखता है |
क्या वह देश का अच्छा नागरिक बन पायेगा ?
उच्च शिक्षा में भी निजीकरण की धूम मची है, जिसके
पास जमीं, सत्ता और पैसा है | उनके लिए शिक्षा एक सफ़ेद धंधा है | लोग भी
उसी धंधें को मानने लगा है और आधुनिक समाज के साथ चलने के लिए अपने आप को ही लुटा
रहा है | हमारे आचार एवं व्यवहार में जमीं आसमान का फर्क दिखाई देता है | कुछ
संस्थान के पास तो जमीं भी नहीं होती और पाठशाला, कोलेज एवं विश्वविद्यालय घर में चलाते है,
जिसके पास अपना कुछ
नहीं पी बिना पैसे के ....
| हम महान सभ्यता के वाहक है और जब कोई उसमें से जाति के आधार
पर आगे आता है, तब उसका विरोध व्यवस्थापन के लोग बड़ी सूक्ष्मता से करते ! कुछ
संस्थान को जब सरकारी महकमों की मान्यता मिल जाती है, तो उनके लिए यह संस्थान
फेक्ट्री के समान बन जाता है |
बाते उच्च और शिक्षा परस्त | कई संस्थान जैसे कुछ
निर्माण करती हो वैसे दिखाई देता है, मगर वहाँ विधार्थियों का मानसिक दोहन ही होता
है |उन पर शिक्षा लादी जाती है,
वह शिक्षित नहीं रट्टा मारे और आगे बढे ... आपको
लगता है, यह रोबोट से भी गए गुजरे हमारा भविष्य निर्माण करेंगे | मगर
करेंगे जरुर | जैसे कई पक्षी होते है कुछ सीमा तक वह पंखे पसारे उड़ते है| मगर उसमें भी कुछ
पंछी पंखे पसारे ऊँची उड़ान भरते है वह आसमान से सारी धरती देखना चाहते है | दुनिया
उन पर हँसती है मगर वह बिना भय के आगे बढ़ता है और वही एक दिन निर्माण करता है | वह
जमीं से आसमान तक को जानता है,
वह भूले-बिसरे को मार्ग दिखता है और अपना कर्तव्य निभाता
रहता है | वह जमीं पर आ कर बड़ी बड़ी बाते नहीं करता, वह बड़े कार्य भी करता है | हमें
उम्मीद है ऐसा होगा |
वह कोई भगवान या इश्वर, अल्लाह या जीसस नहीं होगा, पैगम्बर
नहीं होगा, मगर हमारे तुम्हरे जैसा ही जन्म लेने वाला और मरनेवाला होगा | वह शेर
की खाल में छुपे भेडियें की असलियत को पदर्शित करेंगा |
भारत में सरकारी नौकरी अब फिक्स पगार से मिलती है | विकास
के गाने गानेवाले गुजरात सरकार इस सूचि में सब से आगे है | जो शिक्षा पाकर पांच
साल फिक्स पगार पता है | उस युवा से आप कैसी अपेक्षा कर सकते है ? आपको नहीं लगता
की यह एक सोची-समझी गुलामी की प्रथा है | क्या इस प्रक्रिया से भ्रष्टाचार बढता है
या कम होता है ? लोग युवा को शक्ति के रूप में देखते है, मगर पांच साल के फिक्स
पगार में वह कौन-सी शक्ति दिखायेगा ? जब की पांच साल तक वह सरकार और जिस संस्था
में काम कर रहा है |उस संस्था में गुलाम की तरह रहता है | अपने आप में खोया हुआ और
भय से त्रस्त, अराजकता के इस माहौल में वह कौन-सा पौधा बोएगा ? अपने परिवार को भी
वह न्याय नहीं दे सकता, तो वह राज्य एवं देश के बारे में कब सोचेगा ? वह उसके बारे
में सोचे न पाए इसिलिए उसे रोकने की प्रक्रिया ही, यह फिक्स पगार यानी गुलामी
प्रथा है | निजी संस्थान तो इससे भी गए गुजरे है, वहाँ पर तो उससे गुलामों की तरह
काम भी लिया जाता है और पगार भी कम ही मिलती है
| उसका जन्म तो जैसे यही गुलामी करने के लिए ही हुआ है | अगर नर्क की
कल्पना की जाए तो यह नर्क है और स्वर्ग की कल्पना इससे भी बुरी है | आजाद भारत और
युवा भारत के लोग एवं उस में भी युवा सबसे बड़े गुलाम है | अगर हम गुलाम है तो फिर
हम आजादी के पर्व क्यों मानते है? हमारी शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था,
सरकारी-निजी संस्थान व्यवस्था को देखते हुए हम गर्व से कह सकेगें की हम आजाद है ? हमारे लेखकों से निवेदन है की इस और अपना ध्यान
केंद्रित करे और व्यवस्था परिवर्तन के लिए कलम उठायें |
इस अंक के साथ हम नए साल में प्रवेश कर गए है | हमारी टीम
की तरफ से आप सब को नए साल की शुभकामनायें | हम कोशिश करते है की आपको समय पर यह
अंक मिले मगर व्यस्त समय के रहते यह संभव नहीं हो पता | फिर भी आपका सहयोग हमें
मिलता रहा है | आपके सुजाव भी हमें हमारे मेल पर भेजे जिससे हम आपको बेहतर से
बेहतर देने की कोशिश करे | इसके साथ ही हम अगले अंक पर मिलेगे | आपके सहयोग की
अपेक्षा रहेगी |
प्रधान संपादक
हरेश परमार
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