Creative Space : International Journal
(Refereed & Peer-Reviewed Intrnational Journal)
Multi-Lingual and Multi-Disciplinary
ISSN 2347-1689
Impact Factor : 0.339
July to
Aug., 2015
Editor Voice
Creative
spaeca का प्रस्तुत अंक आपके सामने रखते हुए, आप सभी का धन्यवाद ज्ञापन करते है | आप
सभी ने हमें पूरा सहयोग दिया है, ताकि हम आपके सामने नये लेखकों के साथ नये आलेखो
का रसास्वाद करा सके | हाल के वर्षो में शिक्षा का जो स्तर हमारे सामने आ रहा है
उस पर सोचना दहला देता है |
जहाँ पर हम सरकार का रवैया शिक्षा के क्षेत्र में देख रहे है, वह निराशाजनक है | सरकारी कॉलेज
है, उसमें विद्यार्थी भी है, पर अध्यापक नहीं है, है तो कहीं गिने चुने यानी एक ही
होते है | वैसे भी अध्यापकी में अभी भी फिक्स पेमेंट पर रोजगार दिया जाता है,
जिसका कोई भविष्य नहीं है, वह अपनी असुरक्षा के चलते विद्यार्थिओं को कैसी शिक्षा
देता होगा ? हम सुनते है की, फलानेने आत्महत्या मानसिक रूप से कमजोर होने से या
हताहत हने से की है, कभी कभी ऐसा मंजर भी सामने आता है की, परिवार के डर से, कम
गुणांकन आने से, रोजगारी न मिलने से आत्महत्या होती रहती है | मानसिक प्रताड़ना का
आत्महत्या में कितना हिस्सा है यह आप खुद ही देख सकते हो... फिर भी यह कामना की
जाती है की, असुरक्षा में भी अध्यापक अपना कार्य पुरे तन-मन से करें | दूसरा यह भी
है की, पढने के अलावा सेमेस्टर सिस्टम में अनेक प्रवृत्ति भी आ जाति है, जिसे
अध्यापक लोग सुपरमेन बन के करते रहते है ... फिर भी सरकार जब भी बजट आता है, जब भी
वेतन बढ़ोत्तरी की माँग उठती है, सरकार चरमरा जाती है | जहाँ विद्यार्थी जून, जूलाई
तक बिना अध्यापक ही पढ़ते है एवं साल पूरा हो जाने पर नये साल में नये अध्यापक का
परिचय होता है | यह ऐसा समय है, जहाँ पर आपके श्रम का कोई मूल्य नहीं है, एवं अगर
आप वह काम करने के लिए तैयार नहीं हो तो सरकार किसी को भी बैठा दे या फिर किसी को
बैठाये ही नहीं एवं विद्यार्थिओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है की वह भी जूनियर
सुपरमेन है, कुछ न कुछ रास्ता निकाल हिल लेगें | विद्यार्थियो के पास अध्यापक
मार्गदर्शन देते है, कई पुस्तकों के रेफ़रन्स भी देते है, पर यह सारा वाकया एक तरह
से कथा हो जाता है, क्यों की विद्यार्थी के लिए पुस्तकालय ही नहीं है | उनके पास
दो ही रास्ते होते है, अध्यापक जो कहे उसे मान ले, या ना माने | शिक्षा का बजट
सालो साल कम ही होता जाता है, योजनायें बढती जाती है ... | निजी क्षेत्र को बढ़ावा
सरकार की जिम्मदारी कम करता है, तो जिस सरकार को लोग वोट देते है, वही निजी
क्षेत्र में काम करते हुए मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते है, वेतन के नाम पर तो
कभी श्रम के घंटो में बढ़ावा करके | वोट के अधिकार के वक्त ही भारत में बसे लोग
जिम्मेदार नागरिक कहलाते है, जैसे ही वोट दे दिया अब वह रोबोट मां लिया जाता है,
जो कहे वह काम करें एवं कभी भी माँग ना करे अपने अधिकारों की | कई निजी संस्थान
अपने परिवार एवं अपने समाज को ही रोजगारी देते है पर उपभोक्ता सब लोग होते है | यह
समय ऐसा है जहाँ पर अमीर अमीर बनता जाता है, गरीब और गरीब | फिर हम दोष देते है की
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई, हम है की वही के वही है |
हमारी शिक्षानीति का बखान जितना भी किया जाए कम है | हमनें
भी हमारी मानसिकता जैसे गिरवी रक्खी हुई है | कभी भी हमने वैज्ञानिक विचारधारा का
समर्थन नहीं किया है, हम शोध करते हुए भी कई लोगो को पूज्य मानते है, या मानना
पड़ता है | यही भावना एवं गुरु शिष्य परम्परा ने हमें खोखला किया है | गुरु अपने
आपको उच्च मानते हुए कभी अपने अधिकार नहीं मांगेगे, शिष्य पूज्य मानते हुए उसी के
रास्ते चलने लगता है | यह विसंगता आखिर हमारा दमन करनेवाली सिस्टम को ही बढ़ावा
देती है | हमें यह कहते है की हम अभी सक्षम नहीं हुए है, पर जब कोई अमीर आता है,
तो सरकार बिना कुछ कहे उन्हें बिना ब्याज के लोन भी दे देती है | हमें कभी कभी
हमारे ही स्वास्थ्य के लिए निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है, वहाँ पर वही डॉ. मिल
जाते है जो मेनेजमेंट में एडमिशन ले के अपना खुद का बड़ा अस्पताल बना लेते है |
सरकार भी उसी को अपनी जमीन देती है और वह उसी सरकार की जमीन पर, सरकार के नागरिकों
का इलाज़ करते है | यह विसंगता ही है कि, हमारा समय उलजनो में ही बीत जाता है | फिर
भी उम्मीद है, बदलाव आयेगा..... |
डॉ.
हरेश परमार